कोरोना वायरस जैसे हालात में इस्लाम क्या कहता है

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आज जगह जगह यह  सवाल पुछा जा रहा है कि कोरोना वायरस की इस वबा की वजह से मसाजिद को बंद करना सही है? इस सवाल के जवाब के लिए चंद अहादीस का मुताला ज़रूरी है।

सही बुखारी की हदीस है कि इब्न उमर (र.अ.) से रिवायत है कि जब तेज़ बारिश या ज़्यादा सर्दी की रात होती थी तो नबी-ए-अकरम (स.अ.व.स.) मुअज़्ज़िन को हुकुम दिया करते थे कि अज़ान के बाद कहो “अला सल्लू फिर-रहाल” यानि अपने घरों में नमाज़ पढ़ो” कहे । यह ही हदीस सही मुस्लिम में भी मौजूद है।

सही मुस्लिम और सही बुख़ारी दोनों किताबों में अब्दुल्लाह बिन हारिस (र.अ.) के हवाले से बयान किया गया है कि एक रोज़ जुमे को जब बारिश और कीचड़ ज़्यादा थी तो इब्न अब्बास (र.अ.) ने मुअज़्ज़िन से कहा कि जुमे कि अज़ान के बाद कहे “अला सल्लू फिर-रहाल” और जब लोगों ने तअज्जुब किया तो उन्होंने फ़रमाया कि मैंने आप (स.अ.व.स.) को ऐसा करते हुए देखा और इसकी इजाज़त है।

सुनान इब्न माजाह में इसी हदीस का ज़िक्र है और उसके बाद आता है की इब्न अब्बास (र.अ.) ने फ़रमाया जिसका मफूम है “क्या तुम चाहते हो की में लोगों को अपने घरों से बाहर निकल कर घुटनों घुटनों कीचड़ में पायाब होकर अपने पास आने का हुकुम दूँ?”

इस से साफ़ ज़ाहिर है कि जब सर्दी, बारिश या कीचड़ की कसरत से जुमे तक को नमाज़ घर में पढ़ने का हुकुम हो सकता है तो क्या वबा या बीमारी की शिद्दत के हालात में यह अहादीस लागु नहीं होंगी? आज कुवैत में भी अज़ान में “हईया आलस सलाह” के बजाय “अस सलातो फी बुयूतिकुम” यानि “अपने घर में नमाज़ पढ़ें” पुकारा जा रहा है।

हज़रात अबू हुरैरा (र.अ.) से रिवायत है कि नबी-ए-अकरम (स.अ.व.स.) ने फ़रमाया जिसका मफूम है की बीमारों को सेहतमन्दों से दूर रखो। इस हदीस का ज़िक्र सही बुख़ारी और सही मुस्लिम के अलावा तिब-ए-नबवी की कई किताबों में मौजूद है।

ताउन (यानि प्लेग) के ऐतिबार से कई अहादीस में आया है की आप (स.अ.व.स.) ने हुकुम दिया की जब ये वबा फैले तो जिस जगह फैले वहाँ के लोग उस जगह को छोड़ कर न जाएँ और न बाहर के लोग वहाँ आएँ।

इन अहादीस के हवालों से वाज़े हो जाता है कि वबा या बीमारी फैलने पर “सोशल डिस्टन्सिंग” और सफर करने पर पाबंदी दीनी ऐतबार से भी लाज़मी है। इस्लाम यही कहता है कि मुसलमानो को चाहिए कि अपने अनपे घर पर रहें और अल्लाह से तौबा करें और पनाह मांगे। अल्लाह हम सब को नेक तौफ़ीक़ अता फरमाए।

– मोहम्मद निज़ामुद्दीन पाशा

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